मन के कोने मे जिस पल,
छाने लगे निराशा,
जिस पल सपनों को चोट लगे,
और सब कुछ लगे बुरा सा,
जब हर ओर लगे धुन्ध सा,
जैसे खिला कुहासा,
जलते दीपक का प्रकाश भी,
जब लगने लगे बुझा सा,
छाने लगे निराशा,
जिस पल सपनों को चोट लगे,
और सब कुछ लगे बुरा सा,
जब हर ओर लगे धुन्ध सा,
जैसे खिला कुहासा,
जलते दीपक का प्रकाश भी,
जब लगने लगे बुझा सा,
अपने हाथों की मुट्ठी बांध,
पलकों को अपनी दे विराम,
उस पल मुझे याद तुम करना…..
पलकों को अपनी दे विराम,
उस पल मुझे याद तुम करना…..
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कितना अदभुद है ये जीवन,
इससे अदभुद इसकी बातें,
कुछ सपनों को पंख निकलते,
कुछ को लगते काटें,
पर,सपनों की डोर पकड़ कर,
चलना उचित नहीं होता,
सपना सच हो जाए, फिर भी,
सपना सत्य नहीं होता,
इससे अदभुद इसकी बातें,
कुछ सपनों को पंख निकलते,
कुछ को लगते काटें,
पर,सपनों की डोर पकड़ कर,
चलना उचित नहीं होता,
सपना सच हो जाए, फिर भी,
सपना सत्य नहीं होता,
जब भी नींद खुले तुम्हारी,
जब भी आए सच की बारी,
उस पल मुझे याद तुम करना…..
…………………पंकज पांडेय
जब भी आए सच की बारी,
उस पल मुझे याद तुम करना…..
…………………पंकज पांडेय
सपनों की डोर पकड़ कर,
ReplyDeleteचलना उचित नहीं होता,
उत्तम पंक्तियाँ
सपना सच हो जाए, फिर भी,
ReplyDeleteसपना सत्य नहीं होता,
जब भी नींद खुले तुम्हारी,
जब भी आए सच की बारी,
उस पल मुझे याद तुम करना…..
सच की बातें सच्चाई से .... सार्थक रचना ....
आज 11/06/2012 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
बहुत ही सुन्दर रचना....
ReplyDeleteअति सुन्दर.....
पंकज जी आप ने जीवन की पीड़ा को बेहतरीन शव्दों में वयां किया है
ReplyDelete.....
कितना अदभुद है ये जीवन,
इससे अदभुद इसकी बातें,
कुछ सपनों को पंख निकलते,
कुछ को लगते काटें,
पर,सपनों की डोर पकड़ कर,
चलना उचित नहीं होता,
सपना सच हो जाए, फिर भी,
सपना सत्य नहीं होता,
जब भी नींद खुले तुम्हारी,
जब भी आए सच की बारी,
उस पल मुझे याद तुम करना…..